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चाणक्य के अपमान के बदले की कहानी...

 चाणक्य का जन्म एक बहुत ही निर्धन परिवार में 400 ईसा पूर्व में हुआ था। उनका स्वाभाव बचपन से ही बहुत उग्र था इसलिए उन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है तथा उन्हें विष्णु गुप्त के नाम से भी जाना जाता था। चाणक्य ने उस समय के महान शिक्षा के केंद्र में शिक्षा ग्रहण की थी। उनका रंग काला था तथा रूप के बदसूरत थे। 

ईसा के जन्म से कोई चार सौ वर्ष पूर्व भारत में चाणक्य नामक एक महापुरुष ने जन्म लिया था। चाणक्य के आरजिभक जीवन के संबंध में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं।

एक किंवदंतिय के आधार पर उनके जीवन की एक मनोरंजक घटना यों बताई जाती है। एक बार चाणक्य की माता अपने बेटे का मुंह देखते-देखते एकदम रो पड़ी। चाणक्य अपनी माँ को यों रोते देख बड़े आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने पूछा – माँ। तुम मुझे देख कर एकदम क्यों रो पड़ी ?

 


चाणक्य की माँ बोली- बेटा, तेरे भाग्य में बड़ा राजा होना लिखा है। तू राजा हो जाने पर अपनी माँ को ज़रूर भूल जाएगा। बस, यही सोचकर मेरे आँसू निकल पड़े चाणक्य बोला – लेकिन तुमने यह कैसे जाना कि मेरे भाग्य में राजा बनना लिखा है ? माँ बोली तुम्हारे सामने वाले दो दाँत बताते हैं कि तुम राजा बनोगे।चाणक्य ने बाहर जाकर एक पत्थर उठाया और अपने दोनों दाँत तोड़ कर फैंक दिए।

लौट कर बोला – लो, माँ, मैं अपने राज लक्षण वाले दोनों दाँत तोड़ आया हूँ। अब न मैं राजा बनूँगा और न तुम्हें छोड़कर जाऊँगा। तुम्हारी ममता के सामने संसार की सभी चीजें तुच्छ हैं । इस कथा से पता चलता है कि वे कितने कोमल मन के थे।

चाणक्य तक्षशिला के एक विद्वान ब्राह्मण थे। तक्षशिला उन दिनों सभी प्रकार की विद्याओं का केन्द्र था। तक्षशिला के समान ही उस ज़माने में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र भी शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था।तक्षशिला में अपना अध्ययन पूरा करके चाणक्य पाटलिपुत्र में और अध्ययन के लिए आ गए।उस समय मगध के सिंहासन पर घनानन्द नामक राजा बैठा था। घनानन्द जाति का शूद्र था। वह बडा लोभी था और उसने प्रजा पर बहुत ज्यादा कर लगाकर अपने खज़ाने में बड़ा धन इकट्ठा कर लिया था।

किंतु जिस समय चाणक्य पाटलिपुत्र पहुँचे, उस समय तक घनानन्द के स्वभाव में बड़ा अन्तर आ चुका था। दान बाँटने के लिए उसने एक दानशाला खोल दी थी और उस के प्रबंध के लिए एक समिति बना दी थी। इसका अध्यक्ष कोई ब्राह्मण होता था। यह नियम बना दिया था कि समिति का अध्यक्ष एक करोड़ मुद्रा तक का दान किसी को भी दे सकता है।

चाणक्य विद्वान तो थे ही, अत: शीघ्र ही उनकी योग्यता और विद्वता का सिक्का पाटलिपुत्र में भी जम गया। उन्हें दानशाला प्रबंध समिति का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया।

चाणक्य जहां विद्वान और अनोखी प्रतिभा वाले थे, वहां उनके साथ एक कठिनाई भी थी। वह बहुत ही बदसूरत और रंग के बिल्कुल काले थे। भाग्य की बात कि एक दिन घनानन्द ने अपने दरबार में चाणक्य को बुलाया।इससे पहले उसने उन्हें देखा नहीं था। चाणक्य की सूरत देखते ही राजा को क्रोध चढ़ आया और उसने आज्ञा दी कि चाणक्य को दरबार से बाहर किया जाए।



चाणक्य भला यह अपमान कैसे सहन कर सकते थे ? उन्हें भी बहुत क्रोध आया। मारे गुस्से के थर-थर काँपते हुए उन्होंने दरबार में अपनी चोटी खोल दी और राजा की तरफ मुँह करके बोले-नीच, तूने आज मेरा भरे दरबार में जो अपमान किया है, उसका बदला मैं तुझसे से अवश्य लूंगा।

मैं तुझे और तेरे वंश को मलियामेट करके मगध के राज सिंहासन पर किसी कुलीन व्यक्ति को बिठाऊंगा। मैं जब तक ऐसा नहीं कर लूँगा, तब तक अपनी चोटी नहीं बांधूगा।

यह कह कर चाणक्य गुस्से में ही दरबार छोड़कर बाहर चले गए। वह पाटलिपुत्र से बाहर जा रहे थे, कि तभी अचानक उनकी भेंट चन्द्र गुप्त से हो गई। यही चन्द्र गुप्त बाद में चन्द्र गुप्त मौर्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुए।

चन्द्रगुप्त को देखकर चाणक्य को लगा कि उसमें सचमुच ही राजा बनने के सारे लक्षण हैं। बस, वह उसे अपने साथ लेकर तक्षशिला चले गये।

वहां पर उन्होंने चन्द्रगुप्त को सात-आठ वर्ष तक शस्त्र-विद्या और अन्य शास्त्रों की पूरी शिक्षा दी और अपनी देख-रेख में उसे सब प्रकार की विद्याएं सिखा कर पटु बना दिया। बाद में चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के द्वारा ही नन्द वंश का नाश करवाया।

उसी समय भारत पर मकदूनिया के राजा सिकन्दर ने हमला किया था। यह ईसा से 327 वर्ष पहले की बात है। सिकन्दर सारे यूनान पर अधिकार कर चुका था और उसकी फौजें ईरान के विशाल साम्राज्य को रौंदती हुई भारत की तरफ बढ़ रही थीं।

वह सारे संसार को जीतने का स्वप्न देख रहा था। सिकन्दर के हमले के समय भारत के पश्चिमी भाग में सिंधु नदी की घाटी और पंजाब में अनेक छोटे-छोटे राज्य थे।

यूनान की प्रबल और सुसंगठित सेना के सामने ये छोटे-छोटे राज्य टिक नहीं सके। कुछ राजाओं ने सिकन्दर का बहादुरी से सामना किया। इनमें राजा पुरू का नाम सबसे ऊपर आता है। उसने सिकन्दर की तूफानी बाढ़ को बहुत बहादुरी से रोका, इसकी कहानी पहले ही बताई जा चुकी है।

यह कहानी भारत की नहीं, बल्कि विश्व के इतिहास में सदैव याद रखी जाने वाली घटना है। दूसरे राजाओं की तरह पुरू भी युद्ध में पराजित हुआ। लेकिन सिकन्दर और उसकी यूनानी फौज को मालूम हो गया कि भारतीयों से टकराना चट्टान के ऊपर सिर मारना है।

उसकी हिज़्मत व्यास नदी को पार करके आगे बढ़ने की नहीं रही और वह भारत के जीते हुए भाग पर अपने सूबेदार नियुक्त करके वापस लौट आया।चाणक्य और चन्द्रगुप्त दोनों ने देखा कि किस तरह आपसी फूट के कारण भारत के पश्चिमी भाग पर यूनानियों का शासन स्थापित हो गया है।

सिकन्दर के लौट जाने पर चाणक्य ने देश को यूनानी शासन से मुक्त करवाने का बीड़ा उठाया। उस की दृष्टि में विदेशी शासन सबसे बड़ी बुराई थी। अत: उसने चन्द्रगुप्त को आगे कर पंजाब में एक छोटी-मोटी सेना एकत्र की और उस को इस सेना का सेनापति बनाया। चन्द्रगुप्त के हाथ मज़बूत करने के लिए चाणक्य ने पंजाब के कुछ पहाड़ी राजाओं को भी अपने साथ मिला लिया।

चाणक्य की बुद्धि और चन्द्रगुप्त के युद्ध कौशल के मिलने का ही फल था कि सिकंदर के हमले के तीन वर्ष के अन्दर ही भारत भूमि से यूनानियों का सफाया हो गया और विदेशी शासन का निशान तक नहीं रहा। इसके बाद चाणक्य ने अपना ध्यान मगध की ओर किया। उन्हें अपनी प्रतिज्ञा अभी तक याद थी। वे नन्द वंश का नाश करके चन्द्रगुप्त को गद्दी पर बिठाने की योजना बनाने में लग गए।

चाणक्य ने अपनी कूटनीति द्वारा राजा नन्द के विरुद्ध एक षड्यंत्र रचा और अपने बुद्धि बल से उन्होंने इस षड्यंत्र को सफल बनाया। कूटनीति के सभी दांव लगाकर उन्होंने अन्त में नन्द-वंश का विनाश करने की अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की।



उन्होंने चन्द्रगुप्त को न केवल मगध के सिंहासन पर ही बिठाया, बल्कि बाद में मगध के साम्राज्य को फैलाने में भी उसकी बराबर सहायता की।चाणक्य निःसन्देह त्यागी थे। उन्होंने कभी भी महलों में रहना स्वीकार नहीं किया। चन्द्रगुप्त जैसे महाप्रतापी सम्राट के प्रधानमन्त्री होकर भी वे कुटिया में ही रहते थे, सादा खाना खाते थे और सादा वस्त्र पहनते थे। सारे साम्राज्य पर उनका हुक्म चलता था।

चन्द्रगुप्त स्वयं उनके सामने | सिर झुकाकर खड़ा होता था।चाणक्य के समय भारत में दो प्रकार की राज्य प्रणालियाँ थीं- राजतंत्र और गणतंत्र। उस समय भारत में जो गणतंत्र थे उनका राजकाल आजकल के गणतंत्रों की तरह प्रजा के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा नहीं होता था।वह तो एक विशेष वंश में उत्पन्न लोगों के प्रतिनिधियों का तंत्र था। चाणक्य की सज़्मति में इन छोटे-छोटे गणतंत्रों की तुलना में राजतंत्रों यानी राजा का शासन कहीं अधिक श्रेयस्कर था।इसीलिए उन्होंने अपने समय के छोटे-छोटे गणतंत्रों को मिलाकर एक राजा की अधीनता स्वीकार करने की सज़मति दी।

चाणक्य के मत में राजा का आदर्श प्रजा के पालन व कल्याण की चिन्ता करना होना चाहिए।

वही राजा अच्छा है जो प्रजा के सुख के आगे अपने सुख की परवाह न करे। प्रजा के सुखी होने में ही उसका अपना हित है।

उन्होंने यह भी लिखा है कि राजा की आज्ञा के सामने वेद और धर्मशास्त्रों में दी गई हिदायतें तुच्छ हैं। राजधर्म, मन्त्रियों की परिषद, राज्य-व्यवस्था, राज्य के अर्थ की व्यवस्था, न्याय आदि विषयों पर चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में बहुत विस्तार से लिखा है।

यहां पर ऊपर कही गई इस बात को दोहरा देना काफी होगा कि राजा का हित प्रजा में हैं और यदि प्रजा सुखी है तो राजा भी सुखी रहेगा। चाणक्य की समिति में तलाक और विधवा-विवाह की प्रथाएं धर्म-सज्मत हैं। उन्होंने इनका समर्थन किया है।

चाणक्य ने अपनी बुद्धि के चमत्कार से यूनानी शासकों को निकाल बाहर किया। साथ ही उन्होंने छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर एक विशाल भारतीय साम्राज्य की नींव डलवाई।

                                                                              💗धन्यवाद💗

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