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एकलव्य एक सर्वश्रेठ धनुर्धर की कहानी !

क्या एकलव्य एक सर्वश्रेठ धनुर्धर थे ? एकलव्य इतिहास-दोस्तों हम सब ने हजारों बार महाभारत की कहानी सुनी और देखी होगी जब भी महाभारत की कहानी में सर्वश्रेठ धनुर्धरों का नाम आता है तो उनमें अर्जुन और कर्ण के साथ-साथ एकलव्य का नाम भी शामिल रहता है। दोस्तों क्या आपको पता है एकलव्य भगवान श्रीकृष्ण के चाचा के लड़के होते है जिन्हें बाल्यकाल में ही ज्योतिष के परामर्श से बाबा भील राज निषादराज को दे दिया जाता है।

करीब पांच हजार साल पहले की बात है जब शिष्यों को गुरूकुल में शिक्षा प्राप्त होती थी। जिसके लिए उनको अपने गुरु के आश्रम में रहना पड़ता था। उस समय में गुरु द्रोणाचार्य धनुविद्या में निपुण समझे जाते थे। हस्तिनापुर के सभी राजकुमार कौरव और पांडव भी धनुविद्या प्राप्त करने के लिए अपने गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम में रहते थे। द्रोणाचार्य का सबसे प्रिय शिष्य अर्जुन थे वह उन्हें संसार का सबसे बड़ा धनुधर बनाना चाहते थे। हस्तिनापुर के उन्ही जंगलों में भील जाति का एक राजकुमार एकलव्य रहता था बचपन से ही उसे धनुर्विद्या सिखने की बहुत इच्छा थी।

एक दिन उसने अपने पिता के सामने अपनी इच्छा जाहिर की उसने पिताजी से कहा मैं एक अच्छा धनुर्धारी बनना चाहता हूं और उसके लिए धनुर्विद्या के सबसे महान गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं आप मुझे अपना आशीर्वाद दे, परन्तु एकलव्य के पिता ने कुछ नहीं कहा । उनके कुछ ना बोलने के पीछे कारण था कि एकलव्य क्षुद्र जाति का था। क्षुद्र जाति होने के कारण गुरु द्रोणाचार्य इस शिक्षा के लिए कहीं  इंकार ना कर दे। 

एकलव्य ने मन बना लिया था उसने अपने पिता से कहा मैं जानता हूं पिता जी कि आप क्या सोच रहे हैैं लेकिन द्रोणाचार्य एक विद्वान और बुद्धिमान गुरु हैं आपके आशीर्वाद से में उन्हीं से शिक्षा प्राप्त करना चाहता हु और ऐसा कहकर एकलव्य ने अपने पिता को मना लिया और उनका आशीर्वाद लेकर वह गुरु द्रोणाचार्य के गुरूकुल की और चल पड़ा।


एकलव्य जब गुरुकुल पहुंचा तब उसने  देखा गुरु द्रोणाचार्य अपने प्रिय शिष्य पांडव अर्जुन को शिक्षा दे रहे थे। एकलव्य बड़ी खुशी खुशी वह वहां पहुंचा और हाथ जोड़कर और सर झुकाकर गुरु द्रोणाचार्य के पैर छुए। गुरु द्रोणाचार्य उस अजनबी बालक को देखकर हैरान हो गए और उससे बोले तुम कोन हो बालक और यहां क्या कर  रहे हो तब एकलव्य ने हाथ जोड़कर गुरु द्रोणाचार्य से कहा कि गुरु जी में भीलों का राजकुमार हूं और मेरा नाम एकलव्य हैं मैं आपसे गुजारिश करने आया हूं कि आप मुझे अपना शिष्य बनाकर मुझे धनुर्विद्या प्रदान करें। 

एकलव्य की बात सुनने के बाद गुरु द्रोणाचार्य बोले एकलव्य तुम एक मामुली शिकारी हो और मेरे सभी शिष्य शक्तिशाली और योद्धा के साथ-साथ राजकुमार भी हैं मैं तुम्हें शिक्षा नहीं दे सकता। यह सुनकर एकलव्य बहुत ही दुःखी हुआ और फिर वहां से चला गया लेकिन धनुर्विद्या सीखने की प्रबलता को दबा नहीं पाया और आश्रम से निकल कर बड़ी दूर जंगल में जाकर श्री गुरु द्रोण की एक बड़ी सी मुर्ति बनाई और उस मूर्ति को अपना गुरु मानकर प्रणाम किया और खुद ही धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा।

उसे यकीन था कि अगर वह सच्चे मन से और पूरी लगन के साथ अपने गुरु की प्रतिमा के सामने कोशिश  करेगा तो धनुर्विद्या में जरुर महारथ हासिल करेगा। हर सुबह वह गुरु द्रोण की प्रतिमा की पूजा करता तह और धनुष-बाण लेकर पूरे दिन अभ्यास करता था।

अपनी मेहनत और लगन से एकलव्य की प्रतिभा दिन दूनी रात चौगुनी निखरती जा रही थी। एक दिन हर रोज की तरह एकलव्य अभ्यास कर रहा था तभी एक कुत्ता कुछ दुरी पर भौंकने लगा पहले तो एकलव्य ने कुछ ध्यान नहीं दिया जब उसके अभ्यास में कठिनाई होने लगी तो गुस्से में आकर उसने बिना नुकसान पहुंचाए कुत्ते का मुंह अपने बाणों से बंद कर दिया।


उसी समय जंगल में कुछ दूरी पर गुरु द्रोण के शिष्य भी अभ्यास कर रहे थे उन्होंने जब यह सब देखा था तो गुरु द्रोणाचार्य को सब बताया तो गुरु द्रोणाचार्य ये सब देखकर बहुत ही आश्चर्य चकित हो गये और सोचने लगे की किसी ने बहुत निपूर्णता से और बिना नुकसान पहुंचाए कुत्ते का मुंह बंद कर दिया था। 

उसे ढूंढते हुए आगे जाने पर उन्हें एक धनुर्धारी दिखाई दिया लेकिन वह उसे पहचान नहीं सके। कुछ और नजदीक पहुँचने पर उन्होंने कहा तुम्हारा निशाना तो कमाल का है बालक, कौन हो तुम और तुम्हारे गुरु का नाम क्या है। एकलव्य ने अपना परिचय देते हुए कहा गुरु जी मैं वहीं वीर बालक हूं जिसे आपने शीघ्र जाने को कहकर शिक्षा देने से मना कर दिया और मेरे गुरु तो आप ही है ।

ऐसा कहकर उसने गुरु द्रोणाचार्य को उनकी बहुत बड़ी प्रतिमा भी दिखाई और यह सब देख कर गुरु द्रोणाचार्य बहुत अचंभित हुए। वह समझ गये कि एकलव्य तो अर्जुन से भी बेहतर धनुर्धारी है परन्तु वह अर्जुन को संसार का सबसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी बनना चाहते हैं। 



द्रोणाचार्य बहुत चिंतित हुए उन्होंने एक उपाय सोचा उन्होंने एकलव्य से कहा क्या तुम्हें पता हैं बिना गुरु दक्षिणा दिये कोई भी विद्या व्यर्थ है। एकलव्य ने कहा मैं बहुत खुश हूं आखिरकार आपने मुझे अपना‌ शिष्य तो कहा और मुझसे गुरु दक्षिणा मांगी। एकलव्य ने द्रोणाचार्य से कहा आप जो चाहे मांग सकते है। में अपनी गुरु दक्षिणा देने को तैयार हु तब गुरु द्रोणाचार्य ने कहा तो फिर ठीक है तुम मुझे अपने दांये हाथ का अंगूठा दे दो।


गुरु की बात सुनकर वहां खड़े सभी बालक आश्चर्य में पड़ गये क्योंकि वह सभी जानते थे बिना दांये हाथ के अंगूठे के कोई भी धनुर्धारी बाण नहीं चला सकता है । एकलव्य ने गुरु जी की तरफ देखा और मुस्कुराते हुए कहा कि ठीक है गुरू जी जैसा आप चाहें यह कहकर उसने एक चाकू निकाला और अपना दांये हाथ का अंगूठा काटकर गुरु द्रोणाचार्य के चरणों मैं रख दिया।

यह देख कर गुरु द्रोणाचार्य को बहुत पछतावा हुआ और उन्होंने एकलव्य के सर पर हाथ रखते हुए कहा तुम बहुत साहसी बालक हो। आज के बाद संसार में तुम महान धनुर्धारी के नाम से  जाने जाओगे। जब भी गुरु दक्षिणा की बात आयेगी तो तुम्हारा नाम सबसे पहले आयेगा। इस महान गुरु दक्षिणा के और अपनी निष्ठा और लगन के कारण एकलव्य को एक महान धनुर्धारी के नाम से आज भी जाना जाता है।

                                                                 💗धन्यवाद💗

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